हिंदीः अ से ह तक और उसमें समाहित अध्यात्म, योगदर्शन, ज्ञान और विज्ञान

Hindi learning

Source: Raj

हिंदी भाषा के क्षेत्र में अमेरिका में काम करने वाली डॉ.मृदुल कीर्ति ऑस्ट्रेलिया आई हुई हैं, एसबीएस हिंदी से बात करते हुए उन्होंने हिंदी के योग दर्शन और वैज्ञानिक स्वरुप को समझाया।


प्रस्तुत लेख डॉ.मृदुल कीर्ति के साथ एसबीएस हिन्दी की बातचीत पर आधारित है: 

हिंदी का आध्यात्मिक और दिव्य पक्ष:

 संस्कृत देव भाषा है, हिंदी संस्कृत से ही निःसृत दिव्य भाषा है, देव वाणी है।

‘ अक्षरानामकारोस्मि’ : श्रीमद भागवतगीता १०/३३

वर्णमाला में सर्वप्रथम ‘अकार ‘ आता है।  स्वर और व्यंजन के योग से वर्ण माला बनती हैं।  इन दोनों में ही ‘अकार’ मुख्य है। ‘अकार’ के बिना अक्षरों का उच्चारण नहीं होता। ‘अक्षरों में अकार मैं ही हूँ’ वासुदेव का यह उदघोष दिव्यता को स्वयं ही उदघोषित और प्रतिष्ठापित करता है। बिना अकार के कोई अक्षर होता ही नहीं है। गीता में स्वयं श्री कृष्ण ने ‘अकार’को अपनी विभूति बताया है। अक्षरों में ‘अकार’ मैं ही हूँ, अकार वर्ण की ध्वनि संचेतन शक्ति है जो वर्णों में प्राण प्रतिष्ठा करती है और उस शक्ति अधिष्ठाता स्वयं ब्रह्म है अतः ‘अकार’ ब्रह्म की विभूति है। दिव्य लक्षणों से युक्त होने के कारण ही इसे ‘देव नागरी ‘ कहते हैं।

‘अकारो वासुदेवस्य’

‘अकार’ नाद तत्व का संवाहक है। ‘अकार’ के बिना शब्द सृष्टि आगे नहीं चलती और ध्वनि तरंगों से अकार ध्वनित होता है।

भागवत – भागवत के अनुसार, ‘सर्व शक्तिमान ब्रह्मा जी ने ‘ॐ कार ‘ से ही अन्तःस्थ (य र ल व् ) ऊष्म (श ष स ह ) स्वर (अ से औ तक) स्पर्श (क से म ) तथा (ह्रस्व और दीर्घ) आदि लक्षणों से युक्त अक्षर साम्राज्य अर्थात वर्ण-माला की रचना की ।वर्ण माला के दो भाग हैं – स्वर तथा व्यंजन ।

ऋग्वेद के अनुसार  – स्वर्यंत शब्दयंत अति स्वराः

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। अन्य वर्ण की सहायता के बिना बोले जा सकने वाले वर्ण स्वर हैं। व्यंजन बिना स्वर की सहायता के नहीं बोले जा सकते हैं। व्यंजन में’ अकार ‘ मिलता है, तब ही आकार मिलता है। ‘अक्षर ‘ में प्राण प्रतिष्ठा नाद से होती है और नाद ब्रह्म है। अक्षरों में अकार स्वयं वासुदेव हैं। तब इसका नाश करने वाला भला कौन है। हिंदी में ‘अ’ का अर्थ नहीं और ‘क्षर’ का अर्थ नाश है। अक्षर अर्थात वह तत्व जिसका नाश नहीं होता। अक्षर अपने में ही पूर्ण शाश्वत इकाई है। अक्षरों का क्षरण नहीं होने के कारण ही अक्षर को सृष्टि कर्ता माना गया है। अक्षर को वर्ण भी कहा जाता है। स्वर और व्यंजन के मिलने से ही शब्द सृष्टि का निर्माण होता है।

‘अकारो वासुदेवस्य उकारस्त पितामहः’

वर्ण  – व्–र–ण

व् -पूर्ण, र -प्रवाह, ण -ध्वनि =अर्थात वर्ण वह तत्व है जिसमें पूर्णता है, ध्वनि है और ध्वनि का प्रवाह है।

वर्ण विचार – orthography

शब्द विचार  – etymology

वाक्य विचार – syntax

दार्शनिक पक्ष:

पञ्च तत्वों में आकाश सर्वाधिक विराट, विस्तृत और बृहत है. व्योम की तन्मात्रा ‘नाद’ है और ‘नाद ब्रह्म है’। सारे ही वर्ण ध्वनि जगत का विषय है और ध्वनि पर ही आधारित हैं। यही नाद अथवा ध्वनि शब्द सृष्टि का आदि कारण है। नाद ब्रह्म के साधक आचार्य पाटल हैं। पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में आकाश का नाद तत्व सबसे अधिक सूक्ष्म और अनुभव गम्यता की परिधि में आता है। यह सूक्ष्म रूप में सकल आकाश में व्याप्त नाद उर्जा है। नाद ऊर्जा की शक्ति से ही बादलों की गर्गढ़ाहट और बिजली की चमक की ध्वनि हम तक आती है क्योंकि ध्वनि तरंगों में ही प्रकाश उर्जा का भी वास है। ब्रह्माण्ड और तरंगों से संचालित यह अनूठा जगत है , इसमें तरंग वाद है। नाद कर्ण इन्द्रिय का विषय है। किन्तु जिसका प्रभाव पूरे ही मन , देह और चेतना पर होता है। वचन का प्रभाव जन्मों-जन्मों तक पीछा करता है। तभी कहा है कि वाणी की पवित्रता का नाम सत्य है। अक्षरों की दार्शनिकता को थोड़ा और गहराई से देखते हैं। अब हमें इनके उच्चारण में यौगिक पक्ष भी मिलता हैं।

यौगिक पक्ष:

प्राण वायु के संतुलन और प्रश्वास-निःश्वास के नियमन को योग कहते हैं।  हिंदी का इससे क्या सम्बन्ध है, आईये देखते हैं।

नाभी से लेकर कंठ तक वाणी के मूल केंद्र है। नाभी से ही बालक को गर्भ में पोषण मिलता है। मेरुदंड के अष्ट चक्रों की संरचना में नाभी के क्षेत्र को मणिपुर क्षेत्र कहा गया है।  इस बिंदु पर अनेकों शक्ति रूपी मणियों के केंद्र है , कुण्डलिनी आदि। उन्हीं में एक वाणी तंत्र है। लगता है कि वाणी कंठ से निकल रही है किन्तु मूल नाभी में है। आईये इसे स्वयं करके ही पुष्ट करते हैं :

आप ‘अ ‘ बोलिए – अब अनुभव करिए कि आपकी नाभी अवश्य हिलती है। यही ‘अकार’ का उद्भव केंद्र है। जैसा कि पहले कहा है कि बिना ‘अकार’ के वर्ण आकार नहीं ले सकते। आपके बोलने की चाह करते ही नाभी केंद्र उतेजित होता है और यहीं प्राण वायु के सहारे से क्रमशः कंठ और होठों तक ऊपर जाते हुए स्वरों का स्वरुप ही भाषा और वार्तालाप बनता है।

एक और महत्वपूर्ण अनुभव करिए – अ से अः तक बोलिए तो नाभी से उतेजित वाणी तंत्र क्रमशः कंठ तक जाता है।

जो सबसे पहले नाभी पर दबाब पड़ता है। वह ‘कपाल भाती’ का ही रूप है । अं भ्रामरी का रूप है। अः श्वास को बाहर निकलने का रूप है। हिन्दी और संस्कृत बोलने में प्राण वायु का सामान्य से कहीं अधिक प्रश्वास और निःश्वास होता है यह प्राणायाम का स्वरुप है। मस्तिष्क को नासाछिद्र के श्वसन प्रक्रिया प्रभावित करते हैं । जब चन्द्र बिंदु का उच्चारण होता है तो इसकी झंकार की तरंगें मस्तिष्क के स्नायु तंत्र तक जाती हैं। विसर्ग का उच्चारण नाभि क्षेत्र से ही है बिना नाभी का क्षेत्र हिले स्वः नहीं बोला जा सकता है।

हिंदी के वर्णों का समायोजन अद्भुत है। वर्गों में विभाजित वर्गीकरण कितना वैज्ञानिक है। यह देखने योग्य है।

कंठ क वर्ग क ख ग घ इस वर्ग का उच्चारण कंठ मूल से है।

तालु च वर्ग च छ ज झ इस वर्ग का उच्चारण तालु से है।

मूर्धा ट वर्ग ट ठ ड ढ ण इस वर्ग का उच्चारण मूर्धा (जीभ के अग्र भाग ) से है।

दन्त त वर्ग त थ द ध न इस वर्ग का उच्चारण दोनों दांतों को मिलाने से होता है।

होंठ प वर्ग प फ ब भ म इस वर्ग का उच्चारण दोनों होठों को मिलाने से ही होता है।

हमारे शरीर में दो प्रकार की प्राण और अपान नाम की वायु (वातः ) चल रही है। इन सबका संयमन और नियमन का समीकरण इस पद्धति में है। यह हिंदी के ‘यौगिक पक्ष’ की पुष्टि है। हिंदी भाषा के मनोवैज्ञानिक, निर्दोष और व्याकरण के शाश्वत आधारों की पुष्टि है। 

ज्ञान पक्ष:

जैसे बीज में चैतन्य समाहित वैसे हिंदी के प्रत्येक शब्द में उसके भाव के गहरे अर्थ समाहित है। जहाँ तक नाद है वहाँ तक जगत है। हिंदी के शब्दों के मूल उदगम स्रोत में जाओ, चकित कर देने वाले तथ्य मिलेंगें। सारे जीवन जिन शब्दों का प्रयोग तो किया पर वह किन पदार्थों से बने और क्या भावार्थ हैं इनसे अनजान रहे । निहित अर्थों को जान कर अधिक आनंद पा सकते हैं।

हिंदी का प्रत्येक शब्द गूढ़ अर्थ गर्भा है। बीज की तरह है जिसमें कथित आशय के बीज समाहित हैं। सार्थक शब्दों और समाहित भावों के अगणित शब्द हैं। कुछ को देखिये :

प्रकृतिः  कृति अर्थात रचना, प्र – कृति से प्रथम भी कोई है । अर्थात प्रभु ।

भगवान्: भ – भूमि, ग  – गगन, व – वायु, अ  – अग्नि , न – नीर = भगवान् = अर्थात जो पञ्च तत्वों का अधिष्ठाता है उसे भगवान् कहते हैं।

विष्णु : वि  – विशुद्ध , ष्णु  – अणु = विष्णु , अर्थात जिसका अणु-अणु विशुद्ध है।

खग : ख – आकाश, ग – गमन = अर्थात जो आकाश में गमन करता है।

पादप : पाद – पग, अपः – जल = जो पग से जल पीता है अर्थात पादप, उदाहरण के लिए वृक्ष ।

अग्रज : अग्र – पहले , ज – जन्म = पहले जिसका जन्म हुआ हो अर्थात बड़ा भाई।

अनुज : अनु – अनुसरण, ज – जन्म = अर्थात छोटा भाई।

वारिज : वारि -जल, ज – जन्म = जल में जो जन्मा हो अर्थात कमल, नीरज , जलज , अम्बुज भी इन्ही अर्थों के अनुमोदन हैं।

वारिद : वारि – जल, द – ददातु अर्थात देने वाला = जो जल देता है अर्थात बादल, जलद, नीरद, अम्बुद भी यही अर्थ देते हैं।

जगत : ज – जन्मते, ग – गम्यते इति जगस्तः – अर्थात वह स्थान जहाँ जन्म होता है और जहाँ से गमन होता है = वह जगत कहलाता है।

अर्थ गर्भा शब्दों के विस्तार में जाओ तो स्वयं में ही एक ग्रन्थ बन जाए, इस लेख में इनका विस्तार कदापि संभव नहीं। मात्र कुछ शब्द पुष्टि के लिए है कि हिंदी कितनी रत्न गर्भा है, कितनी गूढ़ गर्भा है। सभी ज्ञान शब्दों में ही तो समाहित हैं। प्रत्येक अक्षर का एक अधिष्ठित देवता भी है अतः कोई अकेला अक्षर भी पूरा दर्शन और अर्थ का पर्याय है।जैसे :

अ का अर्थ ना है – अजर , अमर, अपूर्ण अर्थात जो जर्जर ना हो, मरे नहीं, पूरा ना हो आदि।

वैज्ञानिक पक्ष:

वर्ण माला का यह वैज्ञानिक पक्ष तो महा अद्भुत है, सच कहें तो विस्मयकारी है।

अ से ह का संतुलन, जिसमें एक बार अकार है तो एक बार वर्ण का अंतिम अक्षर हकार आता है।

अकार और हकार का संतुलन और संयोजन – अकार में कोमल और हकार में कठोर का निरूपण है। एक बार कोमल और एक बार कठोर है। प्रत्येक वर्ग में पहला वर्ण वाद दूसरा प्रतिवाद तीसरा संवाद और चौथा अगति वाद है।

क ख ग घ

ka kha ga gha

च छ ज झ

cha chha ja jha

ट ठ ड ढ

ta thha da dhha

त थ द ध

ta tha da dha

प फ ब भ

pa pha ba bha

‘अ’ से ‘ह’ तक : अ’ से ह तक के सूत्र को यदि मिलाओ तो अहं बनता है। वस्तुतः सृष्टि संरचना का मूल भी अहं ही है यहाँ अहं का अर्थ सात्विक है। जो अस्तित्व में आने का द्योतक है। अर्थात किसी तत्व का अस्तित्व में आना । इसी अर्थ में सृष्टि संरचना हुई तो यही सात्विक अर्थ का निरूपण हिंदी के अस्तित्व की संरचना का निरूपण करती है। वह सृष्टि संरचना है तो यह शब्द सृष्टि संरचना है।

हिंदी अ से ह तक – अर्थात अस्तित्व में आना।

अ और ह के ऊपर बिंदु लगते ही अहं होता है। यह बिंदु विस्तृत अर्थों में शून्य होने का द्योतक है। संकुचित अर्थों में अभिमान का द्योतक है। अहं अस्तित्व के अर्थ में कभी जाता नहीं है, इसे किसी उच्चतर में लय करना होता है।  इसका पूर्ण विलय कभी नहीं होता।

अतः हिंदी का विकास, रूचि और सजगता अब प्रगति पर ही है। हिंदी से ही तो ‘मौलिक’ भारतीयता का परिचय और अस्तित्व मुखरित है। 

------------------------------------------------------------------------------------------------

 Tune into  at 5 pm every day and follow us on  and 


Share
Download our apps
SBS Audio
SBS On Demand

Listen to our podcasts
Independent news and stories connecting you to life in Australia and Hindi-speaking Australians.
Ease into the English language and Australian culture. We make learning English convenient, fun and practical.
Get the latest with our exclusive in-language podcasts on your favourite podcast apps.

Watch on SBS
SBS Hindi News

SBS Hindi News

Watch it onDemand